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रोहित वेमुला को फिर मिली प्रताड़ना

7 मई को देश के 11 राज्यों की 93 सीटों पर तीसरे चरण का मतदान हुआ। पहले दो चरणों की तरह इस बार भी मतदाताओं के रवैये में उत्साहहीनता और सुस्ती महसूस की गई। ऊपरी तौर पर इसका कारण गर्म मौसम हो सकता है, मगर हकीकत यह है कि मतदाता सत्ता की बेरुखी से उकता चुका है।

प्रधानमंत्री मोदी मतदान के दिन भी चुनाव प्रचार में जुटे थे। और उनके भाषणों में वही हिंदू-मुस्लिम का स्वर प्रधान था, जो बीते 10 सालों में जनता सुनती आ रही है। कांग्रेस और इंडिया गठबंधन को कोसते हुए श्री मोदी बता रहे थे कि अगर इंडिया गठबंधन सत्ता में आ गया तो फिर सारा आरक्षण मुस्लिमों को मिलेगा यानी अजा, जजा और ओबीसी का हक मारा जाएगा। दरअसल जब से कांग्रेस ने अपना घोषणापत्र जारी किया है और इससे पहले भी राहुल गांधी अपनी यात्राओं और सभाओं में भागीदारी न्याय की बात करते रहे हैं, उसमें भाजपा को डर है कि मुस्लिमों के साथ-साथ आदिवासी, दलित और पिछड़ा समाज भी कांग्रेस के साथ चला जायेगा। इसलिए वे अब हिन्दू-मुस्लिम के साथ-साथ हिंदुओं के बीच भी भेद करने में लगे हुए हैं। हालांकि उनके शासन के दौरान दलितों-आदिवासियों पर किस तरह के अत्याचार हुए, इसके उदाहरण मध्यप्रदेश में आदिवासी के सिर पर पेशाब करने और तेलंगाना में रोहित वेमुला की आत्महत्या जैसी दारुण घटनाओं से समझे जा सकते हैं।

रोहित वेमुला अपने जीते-जी जातिगत प्रताड़ना का शिकार हुए, जिससे उन्हें मुक्ति नहीं मिली, तो उन्होंने आत्महत्या जैसा बड़ा कदम उठाकर खुद को जीवन से मुक्त कर लिया। अब मौत के बाद भी उन्हें इंसाफ़ मिलने की संभावनाएं क्षीण होती नजर आ रही हैं। 17 जनवरी 2016 को हैदराबाद विश्वविद्यालय के पीएचडी छात्र रोहित वेमुला ने आत्महत्या की थी और मौत से पहले एक ऐसा खत छोड़ा था, जिसमें लिखी बातों से कोई भी संवेदनशील इंसान सिहर जाए। रोहित विज्ञान लेखक बनने की ख्वाहिश रखते थे, चांद-सितारों पर लिखना चाहते थे, लेकिन उनके मुताबिक वो केवल अपनी मौत की चिट्ठी लिख पाए। रोहित वेमुला की मौत बराबरी की बातें करने वाले समाज के मुंह पर एक तमाचा थी, क्योंकि एक संभावनाशील युवा प्रशासनिक और शैक्षणिक व्यवस्था को खोखला करने वाले जातिगत भेदभाव की दीमक का शिकार हो गया था। यह दीमक अब भी उसका पीछा नहीं छोड़ रही है। क्योंकि इस मामले में तेलंगाना पुलिस की जो क्लोजर रिपोर्ट सामने आई है, उसके मुताबिक रोहित वेमुला की आत्महत्या के लिए कोई भी दोषी नहीं है, साथ ही इसमें कहा गया है कि रोहित वेमुला ‘दलित’ नहीं थे, बल्कि अन्य पिछड़ा वर्ग से थे।

यह क्लोजर रिपोर्ट रोहित वेमुला को दोबारा मारने जैसी है, क्योंकि इसमें उसे ही कटघरे में खड़ा करने की नीयत दिखाई दे रही है। रोहित वेमुला को दलित न मानने का तर्क हास्यास्पद लगता है, क्योंकि हैदराबाद विवि में उनका दाखिला अनुसूचित जाति प्रमाण पत्र के आधार पर ही हुआ था और उन्हें पीएचडी की सुविधाएं उसी मुताबिक मिल रही थीं। मतलब विश्वविद्यालय प्रशासन, उनके शिक्षक और साथी सभी जानते थे कि रोहित वेमुला दलित थे। उनके साथ इस आधार पर भेदभाव के भी आरोप हैं, जो उनकी मौत का एक अहम कारण था। अब क्लोजर रिपोर्ट में कहा जा रहा है कि रोहित वेमुला का अनुसूचित जाति प्रमाणपत्र ‘धोखाधड़ी’ से हासिल किया गया था। जिस तरह से यहां धोखाधड़ी शब्द का इस्तेमाल हुआ है, उससे ज़ाहिर होता है कि उनके साथ हुई नाइंसाफी को सही ठहराने की कोशिश यहां हो रही है। रोहित की मां अनुसूचित जाति से हैं तो साल 2012 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के मुताबिक रोहित को भी अजा माना जाएगा, क्योंकि सर्वोच्च अदालत ने कहा था कि अगर पिता या मां में से कोई एक दलित है तो उनकी संतान भी दलित मानी जायेगी।

रोहित के दोषियों को बचाने की कोशिश क्लोज़र रिपोर्ट में नजर आई, क्योंकि इसमें माना गया है कि किसी ने रोहित को आत्महत्या के लिए नहीं उकसाया। जबकि रोहित ने अपनी मौत से पहले जो खत लिखा, उसमें उन्होंने यूनिवर्सिटी में भेदभाव के बारे में साफ तौर पर लिखा था और बताया था कि उन्हें भावनात्मक रूप से प्रताड़ित किया जा रहा है। क्या कोई व्यक्ति मरने के पहले झूठ बोल सकता है, यह शायद क्लोज़र रिपोर्ट तैयार करने वालों ने नहीं सोचा। बहरहाल, रोहित वेमुला की मां और भाई अब भी उन्हें इंसाफ दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। हैदराबाद पुलिस महानिदेशक ने आश्वासन दिया है कि इस मामले में फिर से पड़ताल की जाएगी। यानी अभी न्याय की राह पर आगे बढ़ना बाकी है। लेकिन असल सवाल वही है कि न्याय की राह में रोड़ा अटकाने वाले लोग कौन हैं, इनकी शिनाख़्त कैसे होगी।

रोहित वेमुला दलित होते या न होते, लेकिन अगर वे दब्बू किस्म के, व्यवस्था के आगे सिर झुकाकर चलने वाले छात्र होते तो फिर उन पर कोई सवाल नहीं उठाये जाते। मगर रोहित न केवल सवाल उठाते थे, बल्कि वो आंबेडकर छात्र संघ से जुड़े हुए थे और उन मुद्दों पर प्रदर्शन, आंदोलन करते थे, जो दक्षिणपंथी जमातों को रास नहीं आते थे। इसलिए वे जीते-जी इनके लिए उलझन बने रहे और मौत के बाद भी जब इन लोगों पर उंगली उठी तो अपने बचाव के लिए रोहित को ही दोषी ठहराने की चाल चल दी गई।

रोहित वेमुला मामले पर कांग्रेस और खासकर राहुल गांधी ने संसद से लेकर सड़क तक आवाज उठाई, इस पर निर्मला सीतारमण अब भी आपत्ति जता रही हैं कि इस मामले को विश्वविद्यालय संभाल लेता, लेकिन कांग्रेस ने इसका राजनीतिकरण किया। मतलब भाजपा सरकार एक प्रतिभाशाली युवा की मौत पर परेशान नहीं है, उसे तकलीफ़ इस बात की है कि विपक्ष इस पर बात क्यों कर रहा है। अगर विपक्ष बात नहीं करता तो शायद दलित उत्पीड़न के सैकड़ों मामलों की तरह यह भी रफ़ा-दफ़ा हो जाता। सरकार की तो कोशिश होनी चाहिए कि ऐसी घटनाएं घटें ही न। भाजपा शासनकाल में तो ऐसा नहीं हुआ, अब कांग्रेस न्यायपत्र के जरिए हर किस्म के उत्पीड़न के खिलाफ न्याय की बात कर रही है। नरेन्द्र मोदी को इसमें भी तकलीफ़ हो रही है।

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